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ओ षु स्व॑सारः का॒रवे॑ शृणोत य॒यौ वो॑ दू॒रादन॑सा॒ रथे॑न। नि षू न॑मध्वं॒ भव॑ता सुपा॒रा अ॑धोअ॒क्षाः सि॑न्धवः स्रो॒त्याभिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

o ṣu svasāraḥ kārave śṛṇota yayau vo dūrād anasā rathena | ni ṣū namadhvam bhavatā supārā adhoakṣāḥ sindhavaḥ srotyābhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ओ इति॑। सु। स्व॒सा॒रः॒। का॒रवे॑। शृ॒णो॒त॒। य॒यौ। वः॒। दू॒रात्। अन॑सा। रथे॑न। नि। सु। न॒म॒ध्व॒म्। भव॑त। सु॒ऽपा॒राः। अ॒धः॒ऽअ॒क्षाः। सि॒न्ध॒वः॒। स्रो॒त्याभिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (कारवे) शिल्पीजन के लिये (स्वसारः) भगिनी के तुल्य वर्त्तमान अङ्गुलियों (स्रोत्याभिः) वा स्रोतों में होनेवाली गतियों से (सिन्धवः) नदियों के समान (अधोअक्षाः) नीचे को प्राप्त होती हुईं इन्द्रियों से युक्त (सुपाराः) सुन्दर पालन आदि कर्म करनेवाले (सु) (भवत) उत्तम प्रकार से हूजिये जो (अनसा) शकट और (रथेन) रथ से (दूरात्) दूर (वः) आप लोगों को (ययौ) प्राप्त होता है उसको (सु, शृणोत) उत्तम प्रकार सुनिये उसमें (नि) अत्यन्त (नमध्वम्) नम्र हूजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग दूसरे-दूसरे में प्रसन्न बहुत बातों को सुने हुए पुरुष, औरों से बनाए हुए शीघ्र चलनेवाले वाहनों को देख और वैसे ही बनाय के जलाशयों के आर-पार जाते हुए नम्र होवें, उनको जैसे स्रोता नदियों को, वैसे ऐश्वर्य्य गुण प्राप्त होते हैं ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

ओ विद्वांसो यूयं कारवे स्वसार इव स्रोत्याभिः सिन्धव इव अधोअक्षाः सुपाराः सुभवत योऽनसा रथेन दूराद्वो ययौ तं सुशृणोत तत्र निनमध्वम् ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) सम्बोधने (सु) (स्वसारः) भगिनीवद्वर्त्तमाना अङ्गुलयः (कारवे) शिल्पिने (शृणोत) (ययौ) प्राप्नोति (वः) युष्मान् (दूरात्) (अनसा) शकटेन (रथेन) (नि) नितराम् (सु) (नमध्वम्) (भवत)। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुपाराः) शोभनः पारः पालनादि कर्म येषान्ते (अधोअक्षाः) अधोऽर्वाचीना अक्षाः इन्द्रियाणि येषान्ते। अक्षा इति पदना०। निघं० ५। ३। (सिन्धवः) नद्यः (स्रोत्याभिः) स्रोतःसु भवाभिर्गतिभिः ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये परस्मिन्परस्मिन् प्रीता बहुश्रुता अन्यरचितानि शीघ्रगामीनि यानानि दृष्ट्वा तादृशानि निर्माय पाराऽवारौ गच्छन्तो नम्राः स्युस्तान् स्रोतांसि नदीरिवैश्वर्य्यगुणाः प्राप्नुवन्ति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. एकमेकांशी प्रीती करणारे, बहुश्रुत, इतरांनी तयार केलेल्या शीघ्र वाहनांना पाहून त्याप्रमाणे निर्मिती करून जलाशयाच्या आरपार जाताना जे नम्र असतात, जसे स्रोत नद्यांना मिळतात तसे त्यांना ऐश्वर्य प्राप्त होते. ॥ ९ ॥